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०० मोदी सरकार ने कोर्ट में नही की समुचित पैरवी

आलोक शुक्ला ,सामाजिक कार्यकर्ता
नई दिल्ली| माननीय सुप्रीम कोर्ट ने वनाधिकार मान्यता कानून के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकारों से वन भूमि पर काबिज उन लोगों को बेदखल करने की रिपार्ट तलब की हैं जिनके दावे निरस्त हो चुके हैं।

मोदी सरकार ने इस कानून के पक्ष में और आदिवासियों के हकों के लिए सुप्रीम कोर्ट में न तो किसी सीनियर वकील को खड़ा किया और न ही मजबूती से पक्ष रखा। इसका कारण स्पष्ट है की मोदी सरकार सत्ता में आने के पहले दिन से हैं इस ऐतिहासिक कानून को कमजोर करने की पुरजोर कोशिश करती रही। मोदी सरकार सबसे पहले 30 जुलाई 2009 के उस आदेश को ही निरस्त करने की कोशिश कर रही थी जिसके अनुसार किसी भी परियोजना के लिए वन भूमि के डायवर्सन के पूर्व वनाधिकारों की मान्यता की समाप्ति और ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य थी
यह प्रावधान मोदी के कारपोरेट मित्रो की लूट और मुनाफे के लिए बाधक था , यह एक उदारहण समझने के लिए बहुत हैं कि क्यों नही केंद्र सरकार सुनवाई के समय मूकदर्शक बनी रही। इस केस में राज्य सरकारें भी पार्टी हैं और राज्य सरकार भी अपना वकील अपने राज्य के आदिवासियों के हितों के लिए खड़ा कर सकतीं हैं । इस सम्पूर्ण मामले में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने 7 जनवरी को ही छत्तीसगढ़ सरकार को पत्र लिखकर इस मामले में किसी बेहतर वकील को खड़े करने का आग्रह किया था । हालांकि कि सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के बचाव और बेदखली के खिलाफ किसी भी राज्य सरकार की और से कोई बेहतर वकील खड़ा नही किया गया। शायद गैर भाजपा सरकारे भी इस बड़े संकट को भांप नही पाई कि इस केस से देश मे 10 लाख आदिवासियों को बेदखल करना पड़ेगा। यह बेदखली इसलिए गलत हैं क्योंकि अभी तक वन भूमि में काबिज लोगों के वनाधिकारों को मान्यता नही मिली हैं जो दावे निरस्त हैं वो अधिकतर प्रक्रियागत त्रुटि, वन विभाग की मनमर्जी, कर्मचारियों और अधिकारियों में कानून की समझ नही होने के कारण हुए हैं। इसका भी एक उदारहण आपको बता देते है कि छत्तीसगढ़ में गैर आदिवसियों के हजारों दावे इसलिए निरस्त कर दिए गए क्योंकि उनसे तीन पीढ़ियों के जमीन का कब्जा मांगा गया जबकि कानून के अनुसार तीन पीढ़ियों के निवास चाहिए । जब कानून लागू होने के 10 सालों बाद मुख्य सचिव को इसका स्पष्टीकरण देना पड़ा तो अन्य प्रावधानों की समझ प्रशासन को कितनी होगी। बरहाल एक मौका तो राज्य सरकार ने गवां दिया जिसे आगे सुधारा जा सकता हैं या नही ये तो कोर्ट में ही पता चलेगा । लेकिन मेरा सुझाव है कि जमीन पर इस कानून का क्रियान्वयन में जिन गलतियों और मनमानी तरीके से चल रहा हैं उससे सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी लाखों लोग वनाधिकार से वंचित रहेंगे और वन संसाधनों को समुदाय को सौपने की इस कानून की मूल मंशा ही खत्म हो जाएगी।
यह कानून बना हैं ऐतिहासिक अन्याय को खत्म कर न्याय करने के लिए, लेकिन जाने अनजाने में कहीं दूसरे ऐतिहासिक अन्याय की और तो हम नही बढ़ रहे क्योंकि ऐसा होगा तो इसे ठीक करने का मौका दुवारा नही मिलेगा।

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